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मर्मा॑णि ते॒ वर्म॑णा छादयामि॒ सोम॑स्त्वा॒ राजा॒मृते॒नानु॑ वस्ताम्। उ॒रोर्वरी॑यो॒ वरु॑णस्ते कृणोतु॒ जय॑न्तं॒ त्वानु॑ दे॒वा म॑दन्तु ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

marmāṇi te varmaṇā chādayāmi somas tvā rājāmṛtenānu vastām | uror varīyo varuṇas te kṛṇotu jayantaṁ tvānu devā madantu ||

पद पाठ

मर्मा॑णि। ते॒। वर्म॑णा। छा॒द॒या॒मि॒। सोमः॑। त्वा॒। राजा॑। अ॒मृते॑न। अनु॑। व॒स्ता॒म्। उ॒रोः। वरी॑यः। वरु॑णः। ते॒। कृ॒णो॒तु॒। जय॑न्तम्। त्वा॒। अनु॑। दे॒वाः। म॒द॒न्तु॒ ॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:75» मन्त्र:18 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर योद्धाओं के प्रति अध्यक्ष कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे योद्धा वीर ! मैं (ते) तेरे (मर्माणि) शरीरस्थ जीवनहेतु अङ्गों को (वर्मणा) कवच से (छादयामि) ढाँपता हूँ (सोमः) ऐश्वर्य्यसम्पन्न (राजा) राजा (अमृतेन) जल आदि से (त्वा) तुझे (अनु) अनुकूलता से (वस्ताम्) ढाँपे तथा (वरुणः) सेना की पालना करनेवाला उत्तम विद्वान् (उरोः) बहुत (वरीयः) अत्यन्त श्रेष्ठ अन्न आदि (ते) तेरा (कृणोतु) करे तथा (जयन्तम्) शत्रुओं को जीतते हुए (त्वा) तुझे (देवाः) उपदेशक विद्वान् वा अधिष्ठाता जन (अनु, मदन्तु) अनुकूलता से हर्षित करें वा करावें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - सेनाध्यक्षों को चाहिये कि सब वीरों के शरीरों की रक्षा करनेवाले कवचों को यथावत् करें और सर्वाधीश राजा अमृतात्मक अर्थात् अमृत के समान भोग सब सबके लिये देवे तथा वस्त्र और शस्त्र आदि पदार्थ भी देवे और युद्ध करते हुए सब को सब अध्यक्ष हर्ष देवें और उत्साहित करें तथा आप भी हर्ष पावें और उत्साह करें, ऐसा करने पर क्योंकर हार हो ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्योद्धॄन् प्रत्यध्यक्षाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे योद्धृवीराहं ते मर्माणि वर्मणा छादयामि सोमो राजाऽमृतेन त्वाऽनु वस्तां वरुण उरोर्वरीयस्ते कृणोतु जयन्तं त्वा देवा अनु मदन्तु ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मर्माणि) शरीरस्थाञ्जीवनहेतूनवयवान् (ते) तव योद्धुः (वर्मणा) कवचेन (छादयामि) (सोमः) ऐश्वर्य्यसम्पन्नः (त्वा) त्वाम् (राजा) (अमृतेन) जलादिना (अनु) (वस्ताम्) अनुच्छादयतु (उरोः) बहोः (वरीयः) अतिशयेन वरमन्नादिकम् (वरुणः) सेनापालक उत्तमो विद्वान् (ते) तव (कृणोतु) (जयन्तम्) शत्रून् विजयमानम् (त्वा) त्वाम् (अनु) (देवाः) उपदेशका विद्वांसोऽधिष्ठातारो वा (मदन्तु) हर्षन्तु हर्षयन्तु वा ॥१८॥
भावार्थभाषाः - सेनाध्यक्षैः सर्वेषां वीराणां शरीरपरित्राणानि कवचानि यथावत्कर्त्तव्यानि सर्वाधीशेन राज्ञाऽमृतात्मकभोगाः सर्वेभ्यो देया वस्त्रशस्त्रादीनि च, युध्यतः सर्वान् सर्वेऽध्यक्षा हर्षयन्तूत्साहयन्तु स्वयं च हर्षन्तूत्सहन्तामेवं कृते सति कुतः पराजयः ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सेनाध्यक्षाने सर्व वीरांना रक्षण करणारे कवच उपलब्ध करून द्यावे व सर्वाधीश राजाने सर्वांना अमृताप्रमाणे भोगपदार्थ द्यावेत. वस्रे व शस्त्रेही द्यावीत. युद्ध करताना अध्यक्षाने सैन्य हर्षित व उत्साहित व्हावे असे वागल्यास पराजय कसा होईल? ॥ १८ ॥